कभी किसी होली पर लिखी
फागुन के रंगों से जुड़ी अपनी ये दो रचनायें
अतीत के पन्नों से निकाल कर
आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ
फागुन के रंगों से जुड़ी अपनी ये दो रचनायें
अतीत के पन्नों से निकाल कर
आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ
होली की शुभकामनाओं के साथ...
- प्रेम रंजन
अनिमेष
फागुन के
गुन
गा रे गा मन फागुन के गुन
भीतर भीतर कुछ पगता है
रंग तभी ऐसा जगता है
होंठ तुम्हारे जामुन जामुन
नहीं अगर आता है गाना
कहीं हवा से कान लगाना
गा फिर उसकी सन सन सुन सुन
रंगों से ये गीत रँगे हैं
अक्षर अक्षर रंग लगे हैं
गुन इनको भौंरे सा गुन गुन
भोर साँझ वाले अंबर से
फूलों से चिड़ियों के पर से
रंग अनूठे रखना चुन चुन
ऐसा रंग लगाना प्यारे
मन के रंग रँगाना प्यारे
छुड़ा सके ना कोई साबुन
सूरज करता रोज ठिठोली
आसमान में रचे रँगोली
रात उतरती रुनझुन
रुनझुन
खेल रहे हैं दामन चोली
कैसी खून सनी अब होली
सगुन बना ऐसे सब असगुन
रंगों से है रची जिंदगी
रंगों में है बची जिंदगी
चल बाँटें 'अनिमेष'
यही पुन
निरंग अभंग
रंगों से कितनी आस थी अब टूटने लगी
फागुन की कैसी प्यास थी अब छूटने लगी
आँखों में कोई रंग अगर है तो इसलिए
दुनिया गुलाल झोंक कर अब लूटने लगी
ए प्यार तेरे बिन कभी जीना मुहाल था
अब धीरे धीरे लत तेरी भी छूटने लगी
सपनों के बाद सच को पड़ा धोना माँजना
हाथों से कितनी जल्दी हिना छूटने लगी
कुछ दिन नयी जगह रही
गुमसुम उदास सी
फिर ज़िदगी भी मान गयी रूठने लगी
दो चार पल ख़ुशी के कहीं मिल
भी जो गये
फिर पीर आ कलेजा वहीं कूटने लगी
रिश्ते हक़ीक़तों
से रहे उस तरह कहाँ
कुछ ऐसी कर दी दिल
से मेरे झूठ ने लगी
पत्थर बना दिया कभी जिस दिल को वक्त ने
कोंपल नयी वहाँ से अभी फूटने लगी
लो एक और रात कटी बात
- साथ में
'अनिमेष' देख पहली किरण फूटने लगी
पहली अधिक अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंऐसा रंग लगाना प्यारे
जवाब देंहटाएंमन के रंग रँगाना प्यारे
छुड़ा सके ना कोई साबुन
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प्रेम का रंग लगाओ