इस बार अपनी यह कविता साझा कर रहा हूँ जो पिछले साल शुक्रवार पत्रिका की साहित्य वार्षिकी में प्रकाशित हुई थी
~ प्रेम रंजन अनिमेष
संवेदी सूचकांक
आज के दौर में
अपने यहाँ
यही सूचक संवेदना का
कर्ज मिलते विदेशों से
अपने घर के दरवाजे खिड़कियाँ खुलते उनके लिए
यह बढ़ने लगता ऊपर उछलने लपकने लगता
पर भ्रष्टों के खिलाफ उठे अगर आवाज
कोई आंदोलन हो कोई कार्रवाई
मुनाफाखोरों पर आये कहीं से आँच
या परामुखी सत्ता का डोलते सिंहासन
मंद पड़ जाता यह
गिरने पड़ने लगता
अचकचा जाता
यही एक अंक
जिसकी अभी चिंता
सरकार को
बाजार को
एक दूसरे की फिक्र के सिवा
देश बढ़े न बढ़े
आगे
भूख मिटे न मिटे
फसलें उगें कि जलें
पानी रहे न रहे
जनता के हक में जरूरी है
शासन प्रतिपल प्रयासरत है
लोगों की संवेदना कुंद हो चाहे
संवेदी सूचकांक बना रहे...
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