बुधवार, 22 अप्रैल 2015

'एक ब्याह में न जा पाने पर...' ( नूपुर को शादी की शुभकामनाओं सहित)


    अमूमन आज की लिखी कविता आज ही किसी को नहीं सुनाता । पर इस बार ऐसा कर रहा । आपके साथ साझा कर रहा आज ही लिखी अपनी एक कविता । बात कुछ ऐसी है । मौका ही कुछ ऐसा...!
                               ~ प्रेम रंजन अनिमेष

एक ब्याह में न जा पाने पर...
( नूपुर को शादी की शुभकामनाओं सहित) 
                         
 



आज नूपुर की शादी है
पर मैं मीलों परे

नूपुर छोटी दीदी की
बेटी बड़ी
मेरे सामने जनमी
( तब दीदी थीं नैहर में ही )
गोद में उसे खिलाया
उसका पहला जन्मदिन मनाया
अभी पुराने कागजात देखते
मिला वह सुलेख
जो पहली सालगिरह पर था लगाया
नाम जिसमें उसका लिखा
~ नूपुर !


कार्ड में उसके
नूपुर नहीं होगा
नाम वह 
घर और प्यार का
( नया घर और प्यार अब जो उसे
मिल रहा )
न ही 'संभावना'
नाम जो उसे जन्म के समय
बल्कि उससे भी पहले
प्रत्याशा में मैंने
था दिया

सृष्टि सुमन होगा अंकित उस पर
यह भी तो अच्छा
कितना अच्छा

सब बच्चे
या कहें हम सब ही तो हैं
सुमन सृष्टि के
संसृति का यह उपवन
हरा भरा जिनसे

जानता हूँ
दीदी नाराज बहुत मुझ पर
सुन कर कि आ नहीं रहा ब्याह में
होना ही चाहिए

पर गुस्सा कुछ उन्हें
आज के
इस दौर पर भी आये

जिसमें कहते तो हैं
कि दुनिया छोटी हो गयी
और साधन और माध्यम बहुतेरे

पर फिर भी
हर साल जब भी आते दिन लगन के
( या छुट्टियाँ स्कूल कॉलेजों की )
टिकट यात्रा के दूभर हो जाते

इस बार तो इतने दिनों में पहली दफा
अभिकर्ताओं से भी आग्रह कर देखा
( जिन्होंने है कांधा
इस देश को लगाया
जिन पर अभी जिम्मा
विकास की दौड़ में
इसे आगे ले जाने का ! )
फिर भी प्रतीक्षा सूची में ही
रह गया
नाम अपना

पुराना जमाना होता
तो पाँव पैदल निकल जाता
महीने भर पहले
घूमते फिरते मिलते जुलते
डेरा डंडा जमाते जगह जगह
पहुँच जाता वहाँ
पर अब ऐसी चाकरी कहाँ
जो दे अवकाश इतने
इस जगह कौन किसकी सुने

अपनी तो यह
सरकार नहीं
तंत्र भी नाम मात्र लोक का
और यह सत्ता
इन सब पर तो अधिकार नहीं
अपना हूँ मैं मुझ पर हक है
दीदी इसलिए मुझसे
नाराज हो रही

हवाई टिकट जरूर मिल रहा था
पर चौदह हजार का
तो लगा
इतना लगा
इतने पर जा
भेंट करने से अच्छा
फिर कभी मिलने पर
भेंट कर दूँ इतना
नवदंपति को नये जीवन चरण की
बतौर छोटी सी
भेंट

और दिल पर हाथ रख कर कहता
दिमाग से नहीं
दिल से यह सोचा

आप कह सकते हैं
पहले अमीर होता था
गरीबों अभाव वालों का भी
दिल अब दुनियादार हो गया

मिलन उत्सव का शुभ यह सुदिन
वहाँ तो लेकिन
दीदी खोजेंगी
कि जमा हुए इतने लोगों में
मैं नहीं
उनका सबसे छोटा भाई
नूपुर की नजरें भी तलाशेंगी
ब्याह के समय
उस शामियाने में

एक अपना
अनुपस्थित हो
तो फिर कम कितना
लगता कुल जोड़ बाकी सबका

बात तो है बड़ी
पर खैर फिर भी कोई बात नहीं
शुभकामना कर रहा यहीं से
शुभ आशीष दे रहा
अध्याय खुल रहा
भगिनि तेरे जीवन का नया
सुखद हो अब तक से और कहीं ज्यादा
भावी तुम्हारा सारा

और शुभेच्छायें सभी ये
पहुँचेंगी जरूर तुम तक
इन्हें जरूरत नहीं
किसी टिकट की
कहीं से कहीं जा सकतीं
अपने अदृश्य पंखों से
रोकी जा नहीं सकती किसी के रोके

अफसोस लेकिन खूब
और कसक भी
चुभन तो यह हमेशा भीतर रहेगी
कीलती सालती

कि इतने बरसों में पहली बार
किसी सगे एकदम अपने के ब्याह में
हो न सका जा न सका
चूक ऐसी जीवन में पहली
पीड़ा भी
अधिक इसलिए

पर इस व्यवस्था ने
कर ली है व्यवस्था ऐसी 
कि अब आगे ऐसा
होगा होता घटता रहेगा
बार बार
छूटेगा इसी तरह
साथ सुख दुख
उत्सव
अपनों का अपनेपन का
हिला मिला जुला संसार

यह व्यवस्था
जिसके
कहीं न कहीं
हम भी
जिम्मेदार
साझीदार
भागीदार
और
शिकार...!




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