आमों के इस मौसम में चलते हैं अमराई
की ओर ! कुछ
बरस पहले ‘परिचय’ पत्रिका में ‘अमराई’ कविता शृंखला की मेरी 32 कवितायें
आयीं तो हर ओर से काफी सराहना मिली । मुझे
याद है कवितायें पढ़ने के पश्चात प्रख्यात समालोचक डॉक्टर मैनेजर पांडेय जी ने अभिभूत
होकर कहा था कि ये दुर्लभ कवितायें हैं और प्रक़ृति व संस्कृति से गहन जुड़ाव ही ऐसा
उत्कृष्ट सृजन संभव कर सकता है ! यह
वृहद शृंखला अपने आप में एक पूरी पुस्तक की तरह है जिसमें लगभग सौ कवितायें हैं । शायद
कभी इस रूप में सामने आये । अभी अपनी इस शृंखला से कुछ कवितायें आपके सामने रख रहा
हूँ । आपमें से कुछ ने शायद पहले भी पढ़ा होगा इन्हें । पर जब अमराई से गंध और कूज उठ रही है फिर से इनकी याद ताजा कर लेते हैं...
- प्रेम रंजन अनिमेष
अमराई
चिरनव
पास से गुजरते अकसर
कभी दूर से बाँहें फैला कर
रोक लेता आम का वह पेड़ पुराना
हर बार
मिलता हूँ मैं उसे
जैसे पहली बार...
घाम
कबके तपे हुए हैं ये
पहली बारिश के बाद ही
भरेगा इनमें रस
बूँदों से तिरेगी मिठास
उस पर भी
सुबह भिगो कर रखना
तो हक लगाना शाम
नहीं तो लग जायेगा भीतर का घाम...
फल
इतने ऊँचे कद वाले वृक्ष
और फल
इतने जरा से इतने विरल
और ये छोटे गाछ भूमि से लगे
फल जिनके हाथों को चूमते
लदराये गदराये झमाट...
दाय
मिट्टी ने उगाया
हवा ने झुलाया
धूप ने पकाया
बौछारों ने भरा रस
नहीं सब नहीं तुम्हारा
सब मत तोड़ो
छोड़ दो कुछ फल पेड़ पर
पंछियों के लिए
पंथियों के लिए...
भाग
बौर तो आये लदरा कर
पर आधे टूट गये आँधियों में
तब भी टिकोले
काफी निकले
रोकते बचाते निशाने चढ़ गये कई
ढेलों गुलेलों के
जो बचे कुछ बढ़े
पकने से पहले
मोल कर गये व्यापारी
मैं इस पेड़ का जोगवार
मेरे लिए बस
गिलहरियों का जुठाया
चिड़ियों का गिराया
उपहार...
इतना सा
कोर तक भरे कलश में तुम्हारे
आम का पल्लव
पहला प्यार
इतना सा अमृत जो लेता
और उसी को फैला देता
चारों ओर
भरा का भरा
रहता कलश तुम्हारा...
ठिठोली
छुप छुपा कर स्वाद लगाया
पर मुँह चिढ़ाता
अपरस यह उभर आया
मुँहजोर सखियों को ठिठोली का
अच्छा मिल गया बहाना
जैसे जागे हुए को उठाना
कितना कठिन समझाना
जानता है जो उसे
अब कहती हो
तो लेता मान
यह आम का ही निशान !
रह रह कर रस ले
वह निठुर भी...
बेहद
एक तो माटी की
छोटी कोठरी
दूसरे जेठ की
पकाती गरमी
तिस पर नयी नयी शादी
और उसके साथ
खाट के नीचे
किसने रखा डाल
आमों का यह पाल...
गति
सही सलामत
चपल तत्पर अपने पाँव
फिर भी
हम कहीं नहीं
वहीं के वहीं
वही धूप वही छाँव
और यह जो
कहलाने को लँगड़ा
दुनिया भर में
पूछा जाता कहाँ कहाँ...
प्रथम स्मरण
बहुत भरा
चढ़ कर उतरा
रस जीवन में
पर नहीं भूले
दाँत कोठ करने वाले
कुछ नन्हे टिकोले...
आगार
फल तो फल अलग रंग रेशों के
फिर वो चटनी गुरमा कूचे अचार
अमावट अमझोर आमपाना अमचूर...
प्यार के सिवा
और कहाँ
बहुत अच्छी छोटी छोटी कविताऎ / भावों का रस है / यथार्थ है /
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद पढृने और सराहने के लिए !
हटाएंइसी तरह स्नेह बनाये रखेंगे
सचमुच अंतरंगता का बोध देती भाव भीनी कवितायेँ हैं. बधाई.
जवाब देंहटाएंअशोक गुप्ता
बहुत बहुत धन्यवाद !
हटाएंइसी तरह सतत स्नेह बनाये रखेंगे
अदभूत! आम और अमराई के विविध रंग और गंध को सजीव कर दिया आपने |
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