'अखराई' में इस बार वर्तमान
परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में अपनी कविता श्रृंखला ' मरुकाल का मेघदूत
' से एक कविता ' नमामि गंगे ' प्रस्तुत कर रहा
हूँ । प्रख्यात रंगकर्मी एवं लब्धप्रतिष्ठ अभिनेता श्री राजेंद्र गुप्ता
जी के भावपूर्ण स्वर में भी नीचे दिये गये लिंक पर इसे सुना
जा सकता है :
https://www.youtube.com/watch?v=u-9xYq6az-w
~ प्रेम रंजन अनिमेष
नमामि गंगे
µ
नदियों के किनारे
कभी पनपी थीं
सभ्यतायें
मेघ !
प्रयाग से
पाटलिपुत्र तक
देखो गंगा के
पानी में
शव बहते हुए
और मिलाओ
काल से अपनी घड़ी
पूछो अपने आप से
कि हम अभी
किस युग किस समय
में
रह रहे ?
रुको
और झुको
पानी छूकर उसका
कहो
नमामि गंगे
नमामि गंगे !
रुँधे गले से
कह नहीं सकेगी
कुछ वह
बस पानी का हाथ
उठेगा
आशीष के लिए
और
और दिखने लगेंगे
शव बहते हुए
मानो टूटते
पहाड़ों के
मृत पत्थर
बेधते हृदय रह रह
कर
यह दृश्य जिस पर
ठहरती नहीं नजर
जिसे युगों से
युगों ने भी देखा
नहीं
लाशों के साथ
तैरती नदी
ऐसे जैसे
भयावह युद्धों
में
यह युद्ध जो
बिना मैदान में
सामने आये
हथियार उठाये
चलता रहा
यह लड़ाई जिसमें
हारती रही
जनता ही
आँखें चुराने से
भी
सच तो छुपता नहीं
देखो यदि देख सको
जल में बहते
शव ये अधजले बिन
जले
फूल कर उपराते
उतराते
ये ऐसे अभागे
जिन्हें अराजकता
अव्यवस्था ने
अनैतिकता
असंवेदना में
लपेट कर डाल दिया
धार में
ये मनुष्य
भरसक जिन्हें
नोच लूट खसोट
चुके
आपदा में अवसर
तलाशने वाले कारोबारी शिकारी
जीते जी
और मरने के बाद
भी
अब अपनी बारी
अपने हिस्से की
प्रतीक्षा में
श्वान गिद्ध कीट
पतंगें
क्या अंत के बाद
भी
इस आर्त अंत से
मुक्त कर पायेगी
सबकी माता कही
जाती
माँ गंगा
जैसे उद्धार किया
भगीरथपुत्रों
वसुकुमारों का ?
बस आँसू बराबर
जल बचा है उसमें
तुम साथ दो
बरसो जी भर
कि हिम्मत सकत
जुटाये
वह बहा ले जाये
बेचेहरा बेनाम ये
लाशें
लावारिस
परित्यक्त जो नहीं
जब तक
पानी में उसके
सत और साँसें
तुम बरसो मेह
तो तुम्हारे साध
ही
रो लेगी नदी
और रो लेंगे इसी
बहाने
ओट में ये किनारे
और पास बसे गाँव
शहर सारे
सुना है
बारिशों में
भीगते हुए ही वे
रोते
जो चाहते नहीं
रोना उनका
कोई देखे
बरसो हे मेह !
जैसे इन मृतकों
को
मुक्ति की
इस समय नदी को
जरूरत तुम्हारे
पानी की
कि इतने शवों को
अपनी फटी छाती
में
समा सके छुपा सके
इतने सदमों के
बावजूद
जिलाये खुद को
रखे
कौन जाने जायेंगी
कितनी जानें
अभी और शव आ रहे
होंगे
बरसो
खूब बरसो
ओ जलद
ओ नीरद
जैसे आँसुओं से
काजल आँखों का
बरसे ऐसे
धुल पुँछ जाये
यहाँ वहॉं
चमकते अक्षरों
में जो लिखा -
पुण्य भूमि
स्वच्छ धरा
कि इस नदी
या किसी और को भी
ग्लानि से
न पड़े
मरना
नदियों के किनारे
पनपी थीं
सभ्यतायें
क्या इसी तरह
तिरोहित हो
जायेंगी
नदियों की गोद
में...?
♻️
( कविता श्रृंखला ' मरुकाल का मेघदूत ' से )
प्रेम रंजन अनिमेष
(यह कविता ख्यात अभिनेता व रंगकर्मी राजेंद्र गुप्ता जी के स्वर में नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक कर भी सुनी जा सकती है :
https://www.youtube.com/watch?v=u-9xYq6az-w )
बहुत ही मार्मिक और प्रासांगिक रचना सर, बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
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