इस बार अपनी एक कविता ' मनुष्यता ' प्रस्तुत कर रहा हूँ जो कभी 'पल प्रतिपल' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और आगामी संग्रह ' बिना मुँडेर की छत ' में शामिल है
~ प्रेम रंजन अनिमेष
मनुष्यता
भरी हुई गाड़ी में
कैसे कहाँ रखूँ
टपटप चूता अपना छाता
जो बचा कर यहाँ तक
लाया ?
ओस पर चल कर
तलवों में लग गया
एक और तलवा
घास
और मिट्टी का
किस ड्योढ़ी पर
दूँ रगड़ ?
भोर गर्म कपड़ों की
तरह
निकला था पहन कर जो
विचार
अब दोपहर की धूप
में
वही हो गया है
भार
सारी सफाई सजावट के
बाद
कहाँ रहे वह पोंछना
जिसने पूरे घर को
पोंछा ?
कोई हड़काये
बिसुकी यह गाय
छाँह पानी के लिए
जो बेकल
दरवाजे दरवाजे जाय...
भोर गर्म कपड़ों की तरह
जवाब देंहटाएंनिकला था पहन कर जो विचार
अब दोपहर की धूप में
वही हो गया है भार
बढिया