कुछ साल पहले आरा से छपने वाली
लघु पत्रिका 'जनपथ'
में इस कविता श्रृंखला
की कुछ कवितायें आयी थीं और परमानंद जी सरीखे सुधी आलोचकों
सहित बहुत से साहित्यानुरागियों व पाठकों को भायी
थीं । बाद में श्रृंखला में कुछ और कवितायें जुड़ीं और अपने इस रूप में कविता
पत्रिका 'मुक्तिबोध' के नये अंक में यह प्रकाशित हुई है जिसे बेहद पसंद किया गया है
। पढ़ कर कई फोन और संदेश आये तो लगा ब्लॉग के जरिये और पाठकों तक भी इसे पहुँचाया
जाये । सो इस बार अपनी यही कविता श्रृंखला 'दाढ़ी बनाते हुए कुछ कवितायें...' आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ
~ प्रेम रंजन अनिमेष
~ प्रेम रंजन अनिमेष
'दाढ़ी बनाते हुए कुछ कवितायें...'
1
|
आदिरूप
किस तरह
और पहले किस आदिम
मनुष्य ने
साफ निकाला होगा अपना
चेहरा
आदिम अँधेरी गुफा से
सूर्य जैसे
और कब ?
जब साफ की
खेती के लिए पहली
जमीन ?
और क्या दोनों के
एक थे औजार...?
2
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संस्करण
अच्छा बनने के लिए
तरह तरह से पड़ता
खुद को बनाना
रोज रोज
आईने के आगे
अपने को ही मुँह बिराना...
3
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खयाल
खुद की
किसको लगती बास
अपने को
कब चुभते रूखे ये
बाल
अपनी हजामत
भी
दरअसल किसी
और का खयाल...
4
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तभी
फिर बनाते हुए
लगता सोचने
और कट जाता
उत्सुक बच्चों जैसे
उसी समय
आकर झाँकते
विचार
अपने हाथ में होती जब
अपने ऊपर चलने वाली धार...
5
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बेशिकायत
देखा देखी
छुप्पा छुप्पी
किसी बच्चे के
दाढ़ी बनाने जैसा
प्यार पहले पहल का
झूठ बिना मूठ तुक बेतुका
मगर एक अनुभव
सिहराता गुदगुदाता
और ध्यान रहे यह भी
हर औजार खुला
आपने ही था छोड़ा...
6
|
सिद्धि
वैसी सँभाल
कि बाल
कटें
नहीं गाल
जिंदगी ढूँढ़ती
कुछ ऐसी ही धार
जैसे प्यार...
7
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बरबस
प्यार का समय नहीं कोई
दाढ़ी बना रहा होता
कि दबे पाँव आकर पीछे से
गले में आ झूले
बाहें डाल
यह समय नहीं प्यार का
कहता गाल फुलाता
पानी के छींटे मारते
और जुट जाता
फिर से हजामत में
प्यार का कोई समय नहीं
होंठों पर रख कर थोड़ी सी आग
चुरा ले जाये वह जामन सा कुछ झाग !
8
|
महीनी
बढ़ी दाढ़ी
बन जाती सीधे उस्तरे से
पर उससे ज्यादा तरद्दुद
फिर उल्टे उस्तरे
छूटे खूँटों को
उकटने में
उनसे निपटने में...
9
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अव्यवस्था
यह ब्रश फेन लगा इसी तरह
यह पानी का कटोरा कतरनों भरा
यह साबुन छूटा पड़ा
और कसी हुई कतरनी दोधारी
इसी आदमी पर है घर संसार की
पूरी जिम्मेदारी...
10
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पानी पत्ती
ब्रश ?
क्रीम ?
उस्तरा ?
आईना ?
न ! मुस्कुराता वह
और पानी फेर चेहरे पर
जेब से एक पत्ती निकाल कर
हो जाता शुरू
ऐसे इनसान का क्या
मुझे लगता
एक दिन जब इतना भी
होगा नहीं
माथे के पसीने
और हाथ के नाखून से
काम चला लेगा...
11
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संयोग
वे जो बचे
दाढ़ी बनाते
किसी कोने किसी खोह में
छूटे रह गये
बाल सरीखे
पर अकड़ इस तरह ऐसा गुमान
जैसा बचना उनका अपना विधान...
12
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औचित्य
खिंच जाती खाल
कराह उठते
कटते छूटते बाल
समय के साथ
बढ़ता जाता प्रतिरोध
वक्त के साथ दरकार
और तेज धार
उसी जंगल को काटने के लिए
पहले से पैने
औजार
और यहाँ इस पुरानी पत्ती से
बना रहे दाढ़ी
बाइसवीं बार...
13
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फिर भी
कल तो फिर से
उग ही आयेंगे
बढ़ जायेंगे
रूखे ये काँटे
आज क्या इसीलिए
पूरी लगन पूरे जतन से
न करें सफाई
न बनायें दाढ़ी
साफ और चिकनी...?
हजामत कोशिश है
बनने की
आदम के
आदमी बनने की
क्षमा करें अगर यह भी
लगे अत्युक्ति
अतिशयोक्ति...
14
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अक्स
लगता कोई पुकार रहा
और मैं निकल आता
आधी दाढ़ी बनाये
चेहरे पर झाग फेन लगाये
सिर उठा कर देखता
आसमान के आईने में
कोई अपना सा
चेहरा...
15
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लगना
जरा सा लगते
सिहर जाते
इस कदर लहरता
छनछना कर
ऐसी ही महीन
हो अपनी सोच
कि छुये इसी तरह
दूसरों को लगी खरोंच...
16
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गुमान
यह सोचना
कि इससे
देखने
लायक हो जायेगा
यह चौखटा
कुछ नहीं
मुगालते के सिवा
दाढ़ी बनाना भी
है दरअसल
अपने को बनाना...
17
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विनय पाती
देर से शुरू किया
और बंद कर दिया पहले
न घर न द्वार
न पैसे रिश्ते पहचान
कुछ भी तो नहीं बनाया
इस जीवन में
अपनी हजामत के सिवा...!
18
|
संतोष
चले जाते मीलों
चले जाते मीलों
क्या क्या कर जाते
यह सोच सोच कर अब
बाकी उमर न गँवायें
जिन्होंने खुद से
बनायी अपनी हजामत
अनगिन बार
खुश हो जायें
कि इस तरह उन्होंने
लाख दो लाख बचाये...
19
|
लय
कहीं तेज कहीं धीमी
कभी कोमल कभी कठोर
यह लय भी क्या बहुत कुछ
प्यार की तरह नहीं...?
20
|
अभिप्राय
अपनी खातिर
तो होते अधिकतर
कहो यह पुरुषार्थ किसके लिए ?
क्या दाढ़ी बनाना
एक पुरुष की कोमलता...?
बनाने के बाद
कुछ सोचता
अपना हाथ फिराता चेहरे पर
किसी और हाथ की तरह...
21
|
परख
लड़के
देख कर लड़की पसंद करते
वह भी करे देख कर -
दाढ़ी बनाना देख कर
कोई अपनी हजामत कैसे बनाता है
उससे भी पता चलता है
वह आदमी कैसा है...
22
|
उद्घाटित
इतने दिनों बाद
साफ होकर सामने आया
कुछ खोया लगता
कुछ इकहरा
यह चेहरा अनावृत्त सा...
23
|
नवोदय
पहली बार
एक तरुण ने
तराशा है
अपना आप इस तरह
अब देखें आँखें
कौन मिलाता
आईने में
एक सूरज
नया अचीन्हा...
24
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प्रक्रिया
अभी तो
उकेरा है
सँवारा है
अपने को
कवि है
हुआ जरूरी
तो खुद को
तोड़ेगा भी...!
25
|
अपूर
पूरे मनायोग से
पूरी हजमात होने के बाद भी
किसी ओर से हाथ फिराते
लगता कुछ छूट गया
किसी हुनर किसी कला में
कहाँ पूर्णता...
26
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जतन
साबुन पानी नमक
सबका साथ होने पर भी
जरा से चेहरे के
इस हिस्से पर
तरह तरह से बार बार
पड़ता धार को घुमाना
इतना आसान कहाँ
इस जीवन में कुछ भी
बनाना सहेजना सजाना...
~ प्रेम रंजन अनिमेष
बहुत अंतरंग अनुभव की कवितायेँ हैं दोस्त. बधाई. एक स्पंदन भरा अनुभव साझा करता हूँ. विवाह के बाद अगले ही दिन, सुबह मैं दाढ़ी बना रहा होता हूँ और पत्नी यूं हूँ मेरे बगल में आ कर कड़ी हो जाती है, मुझे देखते हुए. मैं आईने में उसका आना देखता हूँ और धीरे से साबुन का झाग सना ब्रश उसके गाल से छुआ देता हूँ. क्या बताऊँ दोस्त, उस छुअन से दोनों ओर कितनी झंकार उपजी थी...इतर वृत्ति का स्पर्श उसके आगे कितना बौना था यह मैं आज काक भी नहीं भूला हूँ. विवाह को 45 बरस हुए. मुझे तुम्हारी कविताओं के क्रम में वह झंकार सुनाई पड़ी... अद्भुत.
जवाब देंहटाएंbahut achchhi kavitaye
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति |
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