रविवार, 12 अप्रैल 2020

अबकी बार...




आशा है आप सब सपरिवार स्वस्थ सानंद सकुशल होंगे  'अखराईपर प्रस्तुत मेरी पिछली दोनों कविताओं 'हाथ धोना' और 'आगत अनचिन्हार' को जिस तरह हार्दिक प्यार दिया आप सबने उसके लिए आभार ! इसी कड़ी में इस बार साझा कर रहा अपनी एक और कविता 'अबकी बार' आशा है यह कविता भी आपके ह्रदय को स्पर्श करेगी 

                              प्रेम रंजन अनिमेष            

अबकी बार 

 
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अब जब 
अपने घरों से हम निकलेंगे 

तो क्या जहर भरेंगे फिर हवा में 
उसी तरह आदत से लाचार 
नदियों से करेंगे वैसे ही दुर्व्यवहार 
पेड़ों पर पहले ही जैसा अत्याचार ?


अब जब 
हम लौटेंगे 
वापस दुनिया में 
जिसे अपना कहते मानते जानते 
तो क्या मिट्टी को उसी तरह रौंदेंगे कुचलेंगे 
आसमान को छेदेंगे छलेंगे 
आग में भर बारूद  औरों पर उगलेंगे ?
 
अबकी बार 
इतने अरसे इतने अंतराल पर 
इतनी हसरत ललक छोह से आतुर 
निकलेंगे खोल कर द्वार 
तो क्या बंद ही रह जायेगा अंदर बोध का किवाड़ 
फिर हमसे चलेगा आगे साये की तरह हमारा अहंकार ?

क्या उसी प्रकार 
होंगे खुश सफल संतुष्ट अपार 
छीन झपट कर लूट पटार 
औरों का हक मार
किन्हीं के खून पसीने की वेदी पर 
धर अपना उन्नति आधार  ? 


लगा तो यही
देखा पढ़ा सुना भी 
कि अबकी बार 
आर या पार 

सचमुच प्रश्न मरण जीवन का 
सारी मानवता की खातिर 
 
कितने दिन बाद 
इतने दिन
घर पर अपने  
रहे ठिकाने में 
 
घर 
जो कारागार नहीं 
बल्कि ठौर 
जहाँ हम आप 
और हमारे अपने बसते
जो अधिवास हमारी आत्मा का

इतने समय
कपाटों के पीछे हम रहे 
यह देखने के लिए 
कि हर तरफ हर ओर 
हमारे न होने पर 
कैसे और कैसी 
होगी रहेगी यह दुनिया 

और पाया 
उसे नये सिरे से जागते 
नये अंकुर फेंकते 

और जाना 
कि बगैर हमारी छेड़छाड़ हमारे हस्तक्षेप के 
जीवन अधिक जीवंत 
सृष्टि अधिक सम्पन्न 
भरती अँगड़ाई अनंत पर्यंत 
रमती भरमती नवभावों नये विचारों सी 
विचरती मुक्त स्वच्छंद 
 
हवाओं में साँस ज्यादा 
आकाश में उजास ज्यादा 
धूप में विश्वास ज्यादा 

पानी में अधिक पावनता तरलता 
धरा पर अधिक हरीतिमा उर्वरता 
 
मानवाधिकारों की बात हम करते रहे 
और हर जीव के जीवन के 
प्रकृति के सृष्टि के 
बाकी सब के 
अधिकार हरते रहे
अनवरत उन पर आघात करते रहे 
 
अपने सिवा किसी की 
परवाह ही नहीं की 
सच में कभी सोचा ही नहीं 
 
अब जब इतने दिनों बाद 
छँटेगा अंधकार 
या कहें कई रातों की रात के पार 
भोर नयी झाँकेगी दूधपीते सी 
प्रकृति जननी का आँचर उघार 
और है आशा अनिवार
कि आयेगी वह सुबह जरूर और जल्दी ही 
 
फिर हम निकलेंगे बाहर 
तो क्या इस सोच इस अहसास के साथ 
कि दुनिया में दखल हमारा कुछ ज्यादा ही 
कि पैर हमने कुछ अधिक ही रखे पसार
और हाथों को फैलाया हुआ इतना 
औरों को अपनाने गले लगाने के लिए नहीं 
सब कुछ छीनने हसोतने हथियाने 
करने को अपने अधीन 
 
क्या यह भूल करेंगे सही 
दोहरायेंगे तो नहीं फिर से गलती वही  ?


अबकी बार 
क्या हम इस आत्मवास से 

करुणतर निकलेंगे 
विनम्रतर निकलेंगे 
मनुष्यतर निकलेंगे 

पहली सुबह देखते निश्छल शिशु आँखों के जैसे...?


प्रेम रंजन अनिमेष

 

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