'अखराई' पर आपके साथ अपनी जो कवितायें साझा की हैं उन्हें आपका बहुत प्यार मिलता रहा है । आशा है आप सब सपरिवार स्वस्थ सानंद सकुशल होंगे
। इसी कामना के साथ इस मंच पर इस बार प्रस्तुत कर रहा
अपनी कविता 'हाथ धोना' ।
जिन मित्रों सुहृदों और उनके ज़रिये जितने लोगों तक यह रचना पहुँची है उन्होंने अत्यंत आत्मीयता
से पढ़ा और सराहा है इसे । बहुत बहुत आभार ! आशा है आपके ह्रदय को स्पर्श करेगी यह कविता
~ प्रेम रंजन अनिमेष
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रह रह कर
बार बार
हाथ धो रहा आदमी
आगे से पीछे से
ऊपर नीचे से
दाहिना बायें से बायाँ दायें से
फिर भी लगता
जैसे अभी ठीक से
नहीं धुला
अपने अलगाव के
अकेलेपन में
रो रहा
बार बार
धो रहा
वह हाथ
आगे बढ़ा
किसी से मिलाने के लिए
नहीं
दूर रहो...रहो परे
करने आगाह चेताने के लिए
औरों की बात और
खुद अपने चेहरे को भी
छू नहीं सकते
हाथ से अपने
इतनी ग्लानि
इतना भय
ऐसा संशय
कि अपना हाथ भी अगर
छू जाये अपने दूसरे हाथ से
तो लगता डर
कहीं हो न जाये संक्रमण
अपना भी हो गया
इस तरह दूसरा
इस कदर हो गयी
अस्पृश्य आत्मा
और आत्मीयता
प्रेम परे
अपनापन दूर
काम से
हाथ धो बैठे
कमाई से
जहाँ के थे
वहाँ से निर्वासित
उखड़े जड़ से विस्थापित
जहाँ जाना जहाँ पहुँचना
कितनी दूर वहाँ से
पहियों से छिटक कर
मीलों चल कर पैदल
कहीं बीच के
शरणार्थी शिविर में
अटके
दो जून
खाने का
नहीं ठिकाना
पर रह रह कर
दस दस बार
हाथ माँजना भिगाना
यह किसने
क्या किया ऐसा
कि पूरी मानवता
एक साथ
गयी पकड़ी
रंगे हाथ
और अब सब
अलग थलग
हर कोई
जो जहाँ जैसे वहीं
धो रहा
हाथ मल मल कर
फिर भी लगता
मानो मैल नहीं गया
ठीक से धुला कहाँ
जबकि यहाँ से वहाँ
फैलता जा रहा
झाग ही झाग
जन प्रसारण व्यवस्था से
हो रही घोषणा
रह रह कर
बारंबार
कि भली प्रकार
हाथ धोयें
साबुन पानी से
नहीं तो धोना पड़ेगा
जान से हाथ हाँ
हाथ धोना पड़ेगा
जान से...
यह इंसानियत का अजब इम्तिहान है
शुक्र है
कि अब भी
जान है
और जहान है...!
प्रेम रंजन अनिमेष
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