सोमवार, 18 मई 2020

ऐ इनसां...




वर्तमान परिस्थितियाँ चाहे जितनी पीड़ादायक हों, उनमें एक प्रश्न भी उठता है मन में कि क्या इनके लिए पूरी तरह मनुष्य मात्र और उसकी महत्वाकांक्षा उत्तरदायी नहीं ? और क्या अब भी तथाकथित महानता के आवरण के अंदर छुपी क्षुद्रता को पहचान कर सचेत हो जाना सही नहीं होगा ? कोई प्राकृतिक आपदा तो यह कहीं से भी प्रतीत होती नहीं क्योंकि प्रकृति तो लख निरख कर  किलक विहँस रही है और परख रही कि वह चेतना वह जागृति अब भी आती है या नहीं आदमजात में ? कहीं इतर देखने झाँकने के बदले यह आत्मालोचन आत्मनिरीक्षण औरआत्ममंथन का समय है इनसानियत के लिए  इसी सन्दर्भ में साझा कर रहा अपनी यह रचना  *'ऐ इनसां...'* ~ थोड़ी लम्बी ग़ज़ल के रूप में
                                                     ~ प्रेम रंजन अनिमेष 

 

🍁ऐ इनसां...🍁


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बहुत   हुई   अब   ये  नादानी     इनसां
कर  मत  हर  मानी   बेमानी     इनसां


 कैसे    कैसे    मुखौटे   पहने    हैं     सबने
हर   सूरत   लगती  अनजानी    इनसां
 
इनके  दम  से  ही  धरती  की   हरियाली
सूखे   ना   आँखों   का   पानी     इनसां
 
बाहर  कितनी भीड़ है  कितना कोलाहल
भीतर  है    कैसी    वीरानी       इनसां
 
सजे  सजाये   जिस्मों  के   इस   मेले   में
कहाँ  कहीं   कुछ  भी  रूहानी   इनसां
 
हो  मुहब्बत तो दौलत क्या शोहरत क्या
सब  कुछ  लगता  है  बेमानी     इनसां
 
पीर परायी   पढ़  ले  वो ही  सच्चा प्यार
अब भी नयी  ये  बात  पुरानी    इनसां
 
अपने  मतलब   साधने  में   खोया  ऐसा
भूल  गया  असली  जो  मानी   ऐ इनसां
 
इक जग  कितनी बार  मिटाने के सामान
हैरानी   को   भी    हैरानी       इनसां
 
जीने   की  ख़ातिर  हक़   छीने  औरों  के
मन का  मान  कि  ये मनमानी  ऐ इनसां
 
जीवन को इतना भी  मुश्किल मत कर दे
रहे   मौत  ही  इक  आसानी    इनसां 

दोनों जहां क्या दोनों जून भी कितनों को
लुटा   सभी  का   दाना  पानी    इनसां
 
किसकी  चादर में   पाता है  सब कुछ
बस  भी   कर  ये  खींचातानी    इनसां
 
कायनात  में   ज़र्रे   जितनी   है  औक़ात
फिर भी क्यों  इतना अभिमानी ऐ इनसां
 
रहा   अगर   कोई   रोने  वाला  भी  तो
रहेगा  क्या   आँखों  में  पानी    इनसां
 
तेरे   बाद     बचेगी    तेरी     नेकी   ही
और  तो  हर शय  आनी  जानी  ऐ इनसां
 
साँस साँस  में  ज़हर  भर दिया है  किसने
क्यों  बदरंग   हुआ   ये  पानी     इनसां
 
नफ़रत   बो कर   काटेगा    बरबादी   ही
छोड़  दे   ऐसी  फ़सल  उगानी   इनसां
 
तू भी  क्या  बच पायेगा  और कितने दिन
दे  कर  औरों   की    क़ुर्बानी      इनसां
 
पल  पल  और  उमड़ता  आता  ये  तूफ़ान
देखो    कैसे    नाव    बचानी      इनसां
 
उस क़ुदरत के  साथ किया क्यों  छल ऐसा
जो   ख़ुद   थी   तेरी   दीवानी     इनसां
 
तिनका तिनका बिखर न जाये कहीं चमन
मिट ही न जाये अमिट निशानी  ऐ इनसां
 
कौन   ज़ुबान   ये   नन्हे   बच्चे   सीख  रहे
तज  कर   अपनी  बोली  बानी   इनसां
 
कितनी  मुरादों  से  मिलती  है   ये हस्ती
और  ये  दुनिया  जो  लासानी    इनसां


 जाने  से  पहले  तो   जान  ले   अपने को
जान तो  ये  इक दिन  है जानी  ऐ इनसां
 
आज  जी  रहा  है  अपनी   ही  शर्तों  पर
कल जाने हो  किसकी  ज़ुबानी  ऐ इनसां
 
क्या  कोई  होगा  कहने  को - आगे  फिर
होगी  जब  ये   ख़त्म  कहानी   इनसां
 
खुले गगन में  जगमग झिलमिल  हों तारे
लहराने   दे   आँचल   धानी      इनसां
 
निकलेगा  रोशन दिन  निकलेगा  फिर से
आँखों  में   है   रात   बितानी    इनसां
 
सच  के  प्याले  पीकर  हर युग में  यूँ  ही
पायी    सपनों   ने   ताबानी     इनसां
 
ख़ुदपरस्त   मत   खेल   ख़ुदाई   से   ऐसे
पड़े  ख़ुदी  की   ख़ाक  उठानी   ऐ इनसां
 
अपने साथ डुबो मत दरिया को 'अनिमेष'
नहीं  जहां   इतना  भी  फ़ानी    इनसां

 🌺🌹🌻🌷🌸

 प्रेम रंजन अनिमेष

 

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