दिन महीनों में बदलते जा रहे मगर अब भी देश और दुनिया की नज़र टकटकी लगाये टिकी
हुई है कि उम्मीद की किरण कहीं दिखे। इतने
दिन इस तरह गुज़रे जैसे कोई लम्बी रात हो जिसके पार भोर का इंतज़ार हो बेक़रारी से सबको
! इसी सूरते हाल को बयान करती अपनी यह ग़ज़ल 'सहर कहाँ...’ पेश कर रहा 'अखराई' में इस बार...कि वह सहर जल्दी से आये और ज़िंदगी पुरनूर
हो फिर मुसक़ुराये...
~ प्रेम रंजन अनिमेष
सहर कहाँ
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शबे ग़म बता है सहर कहाँ
यूँ घिरा अँधेरों में ये जहां
अभी बच सके तो बचा ले जां
कहाँ मंज़िलें कहाँ कारवां
कहाँ जायें अपना है घर कहाँ
रहों पर न रह कहे हुक्मरां
वो जो घुटनों पे है सरक रहा
उसे उठ के देना है इक बयां
है ज़मीन पैरों तले नहीं
बढ़े हाथ छूने को आसमां
इसे जीतने का न कर गुमां
बना कुछ नहीं से ये सब कभी
इसे अपनी धुन में न कर धुआँ
तू ज़हीन इतना भी था न जब
तो हसीन करता था ग़लतियाँ
हैं बहुत सजाने को गुलसितां
नहीं पूछ दे कोई किसकी हैं
ये जो रेतियों की हैं खेतियाँ
क्यूँ बना रखे कई असलहे
तेरे पास तो है बस इक जहां
ये मिटाने के नये क़ायदे
न मिटा दें तुझको ही मेहरबां
जो अवाम सड़कों पर आ गयी
उसे कैसे रोकेंगी टुकड़ियाँ
न बढ़े अना ये कुछ इस तरह
रहे कल कहीं न कोई निशां
न अगर हो ख्वाबों का आशियां
चलो दूँ सुला कहा मौत ने
नहीं सोने के लिए पटरियाँ
ये सियाही किसने उड़ेल दी
है उम्मीद की वो किरण कहाँ
सरेआम होंठों पे होंठ रख
मुझे दर्द कर गया बेज़ुबां
हुए हाथ हाथों से दूर अब
न रहें दिलों में ये दूरियाँ
जुड़े आज जो यूँ ही लौ से लौ
तो बनेगी कल नयी दास्तां
उसे कर न लम्हों में रायगाँ
प्रेम रंजन अनिमेष
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