बंद में अनगिनत मज़दूरों कामगारों
के धूप ताप में जलते चलते सुदूर अपने गाँव के लिए पाँव पैदल जाने के दृश्य हृदयविदारक
हैं… और अनिर्वचनीय भी ! पता नहीं शब्दों
में उनकी अकथ कथा और अगाध व्यथा व्यक्त करने
का कितना सामर्थ्य है ! इसी पृष्ठभूमि में
अत्यंत नत विनत भाव से साझा कर रहा अपनी यह ग़ज़ल 'गाँव जाना चाहते हैं...'
~ प्रेम रंजन अनिमेष
गाँव जाना चाहते हैं...
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है कहाँ जो आबोदाना चाहते हैं
हम तो अपने गाँव जाना चाहते हैं
आइना दुख को दिखाना चाहते हैं
आँसुओं में मुसकुराना चाहते हैं
बस्तियाँ कितनी बनायीं और बसायीं
दर ब दर होकर ठिकाना चाहते हैं
छिलते छालों को बना कर राह चलते
नक्शे पा यूँ छोड़ जाना चाहते हैं
टूटती है आस या फिर साँस पहले
आख़िरी तक आज़माना चाहते हैं
कुछ कमाने आये सब जाते गँवा कर
ज़ख़्म ये ख़ुद से छुपाना चाहते हैं
छूटते रस्ते बुलाना चाहते हैं
मोल अब अपना लगाना चाहते हैं
पत्थरों में दूब सा जीवन यहाँ है
होने का कोई बहाना चाहते हैं
फ़सल बन कर लहलहाना चाहते हैं
हैं कहाँ जो मान कर इसको इबादत
रूठे बचपन को मनाना चाहते हैं
क्या कहें हम क्या बताना चाहते
हैं
भूख की रोटी पका कर खा रहे हैं
प्यास को पानी बनाना चाहते हैं
ख़ुश्क होंठों पर तराना चाहते हैं
धूप हम उनकी उठाना चाहते हैं
हौसले ऐसे बढ़ाना चाहते हैं
अपनी हस्ती जो मिटाना चाहते हैं
आसमानों को झुकाना चाहते हैं
ढलते सूरज आँखों की इस रोशनी से
अब दिया तुझको दिखाना चाहते हैं
फिर वो उजड़ा आशियाना चाहते हैं
हाथ में ले हाथ दिल की बात करते
फिर वही आलम पुराना चाहते हैं
एक एक कर के गुज़रते जा रहे हैं
लोग जो गुज़रा ज़माना चाहते हैं
कौन सा कोई ख़ज़ाना चाहते हैं
है हमारे दम से तेरी बादशाहत
याद बस इतना दिलाना चाहते हैं
हम लहू जिस पर लुटाना चाहते हैं
पूछना मत कौन जो उजड़े घरों की
आग में सब कुछ पकाना चाहते हैं
कोख में जो ज़िंदगी लेती कराहें
क्या जहां उसको दिखाना चाहते हैं
तुझको किस दुनिया में लाना चाहते हैं
लाश कांधों पर उठायी इतने दिन तक
अब सवालों को उठाना चाहते हैं
जैसे भी हों लोग ये अपने हैं आख़िर
फिर गले इनको लगाना चाहते हैं
ऐ मेरी बेनाम चाहत जाते जाते
नाम से तुमको बुलाना चाहते हैं
दम न टूटे देहरी तक आते आते
धड़कनें इतनी बचाना चाहते हैं
माफ़ कर छूटी हुई मिट्टी ये बच्चे
इतने दिन पर मिलने आना चाहते हैं
माँ बुला ले अपने आँचल में सुला ले
गोद में फिर सिर छुपाना चाहते हैं
अब कोई मंज़िल न कोई चाह 'अनिमेष'
अपनी छूटी छाँव पाना चाहते हैं
प्रेम रंजन अनिमेष
विस्थापन और परायेपन के दर्द को मानवीय संवेदना के साथ चित्रित करने की अप्रतिम पहल | मन और ह्रदय की अंतरतम गहराइयों से निकलने वाली लहरों की भांति इस लम्बी ग़ज़ल के सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं और यही अहसास कराते है कि यह दर्द सचमुच अनिर्वचनीय है| तथाकथित सभ्य समाज के अंतर्विरोधों और वर्तमान राजनीति के अमानवीय सरोकारों के दौर में कविताएं और ग़ज़लें सपाटबयानी और नारेबाजी बन कर रह गई हैं -- कभी कभी तो स्वयं ही एक मोहरा बन इस सुलगते दौर में अपनी रोटियाँ सेंकने में शामिल हैं | प्रेमरंजन अनिमेष ने अपनी ग़ज़ल को इन ओछी एवं क्षुद्र प्रवृतियों से बचाकर रचनाधर्मिता का प्रतिमान स्थापित किया है|
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