( 'आजकल' युवा साहित्य विशेषांक, मई-जून 1995 में प्रकाशित )
'बाँस' : एक कविता की रजत जयंती
'अखराई' में इस बार साझा कर
रहा अपनी बहुत पहले - लगभग तीन दशक पहले रची कविता 'बाँस' ! यह कविता इंदौर से निकलने वाली
साहित्यिक पत्रिका 'भोर' और फिर
प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' के मई-जून 1995 अंक में
आयी थी, जो युवा
साहित्य विशेषांक था । इस तरह इस कविता की रजत जयंती पूरी हो गयी है ! लिहाजा इस
कविता का हक बनता है पुनः साहित्य प्रेमियों के बीच पहुँचने का और
साहित्यानुरागियों का भी एक बार फिर से इसे सराहने का । धन्यवाद भाई प्रेमशंकर शुक्ल जी का, जिनकी सामाजिक माध्यमों
में इधर आयी इसी शीर्षक की कविता ने मुझे दशकों पुरानी अपनी यह कविता याद दिला दी और
इसी बहाने इसे अतीत के पन्नों से ढूंढ़ निकाला... और संयोग से तब जबकि इसी महीने इसके प्रकाशन के पच्चीस साल पूरे हुए
हैं । किसी कवि की कविता या रचनाकार की रचना की
एक कसौटी यह भी मानी जाती है कि एक अंतराल पर अपनी वही कृति खुद उसे कैसी लगती है ! और सुखद लगा, बल्कि मन ही मन मान
हुआ कि इतने अरसे पहले एक इतनी बेधक सार्थक और सशक्त कविता अपनी कलम से निकली थी, जो आज भी उतनी ही
प्रासंगिक है... बल्कि शायद पहले से और अधिक ।
तो लीजिये प्रस्तुत कर रहा अपनी यह कविता 'बाँस' - जिसका फलक
अत्यंत विस्तृत है - जीवन जगत और अनंत को अपने आप में समेटे हुए
~ प्रेम रंजन अनिमेष
बाँस
µ
जीवन और मरण के बीच की रस्सी पर
नट को चाहिए
अपने संतुलन के लिए
एक बाँस
चोर को चाहिए
एक बाँस
फाँदने के लिए दीवार
घुटनों पर हाथ रख कर
घर को उठने के लिए
चाहिए बाँस
बाँस चाहिए
सूरज को रोज
पहाड़ लाँघ कर उगने के लिए
खँचड़ी को
नक्षत्रों के फल तोड़ने के लिए
गाली को
अपने असर के लिए चाहिए
बाँस
बात को वजन
अर्जी को सुनवाई
कहन को मान के लिए
बहती नदी हो करनी पार
या रुके नाले खोलने
गुजर या बसर
बाँस जरूरी
चाहे प्यार के सुर हों छेड़ने
गृहस्थी की गाड़ी ठेलनी
या पीरी फकीरी का सफर
मंच मचान मेले तमाशे
खेमे शामियाने के लिए
बाँस चाहिए
क॔धों से ऊपर जाने के लिए
भीड़ से अलग नजर आने के लिए
अनंत में सीढ़ी लगाने के लिए
बाँस है
लेकिन
नहीं बेकार
बल्कि बेकारों के काम की तलाश
और गुमनामों के नाम की तलाश
खत्म होती अकसर
किसी बाँस के आसपास
जड़ पकड़ चुका है जीवन में
बहुत बड़ा और बढ़ा इसका कारोबार
जीवन का चूल्हा हो फूँकना
या मौत की चिता खोरनी
बाँस लाजिमी
मंजिल
लगती नहीं
कुछ हाथ पर
या कुछ कदम दूर
या मीलों आगे इस तरह
कि दिखाई न पड़े
म॔जिल हमेशा लगती
परे बस
एक दो बाँस
सच्चाई यही है
कि इस दुनिया में
केवल
अपने बल पर
आसानी से
कहीं नहीं पहुँच सकते
कहीं नहीं पहुँच सकते
बिना बाँस के
मरघट भी नहीं !
प्रेम रंजन
अनिमेष
प्रेमरंजन अनिमेष ने अपनी अनूठी काव्य शैली और गहरी संवेदना से न जाने कितनी बार यह साबित किया है कि जीवन जगत की हर शय, जड़ या चेतन, पर कविता संभव है। लिहाज़ा कोई आश्चर्य नहीं जो अनिमेष ने बाँस पर इतनी अद्भुत और अभूतपूर्व कविता लिखी जिसका दायरा असीमित है। इस विषय पर इतनी सुन्दर कविता अब तक शायद ही कभी लिखी गयी हो।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार इस स्नेह और सराहना हेतु !
हटाएंअद्भुत।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद !
हटाएंउम्दा रचना , कविता की रजत जयंती वर्ष मुबारक हो
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया ! ऐसे ही स्नेह संवाद बना रहे !
हटाएंbaas kee sarthaktata hai maanav jeevan me
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद सराहने के लिए !
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना, रजत जयंती की बधाई।
जवाब देंहटाएंपढ़ने और सराहने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद पूर्णिमा जी !
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